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Saturday, April 3, 2010

कृषि भारत,हरित क्रांति पर तो बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का काफी हद तक कब्जा हो गया.आर्थिक सत्यानाश की तैयारी

कृषि भारत,हरित क्रांति पर तो बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का काफी हद तक कब्जा हो गया.आर्थिक सत्यानाश की तैयारी,पेप्सीको ने ठेका खेती में 12,000 किसानों को लगाया
 

पलाश विश्वास

मृत्यु उपत्यका है यह मेरा देश भारत वर्ष। बर्बर, रक्ताक्त समय है यह और चारों तरफ ... दम तोड़ती जनता का लंगोट उतारती चुनावी कोरपोरेट राजनीति. .पेप्सीको ने ठेका खेती में 12,000 किसानों को लगाया!'लेज' और 'अंकल चिप्स' जैसे ब्रांडों की बिक्री से उत्साहित पेप्सीको ने ठेके पर आलू की खेती करने के लिए देश भर में करीब 12,000

किसानों से अनुबंध किए हैं।

पेप्सीको होल्डिंग्स (कृषि व्यवसाय) के एग्जक्यूटिव वाइस प्रेसिडेंट निश्चिंत भाटिया ने बताया, 'करीब 12,000 किसान हमारे लिए 16,000 एकड़ जमीन में आलू की ठेके पर खेती कर रहे हैं। इनमें से 6,500 किसान पश्चिम बंगाल में हैं जहां कंपनी के लिए 2,600 एकड़ में आलू की खेती की जा रही है।'

पेप्सीको की ठेका खेती बहुत तेज गति से बढ़ी है। कंपनी ने खेती के पिछले मौसम में 22,000 टन आलू की खरीद की थी। उन्होंने कहा कि स्नैक्स ब्रांड की बढ़ती बिक्री के साथ कंपनी देश में ठेका खेती को बढ़ावा देगी।

निश्चिंत भाटिया ने बताया कि पेप्सीको किसानों से छह रुपए किलो के हिसाब से आलू खरीदती है जो बिचौलिया की ओर से किसानों को मिलने वाली दर से अधिक है। यह पूछने पर कि क्या कंपनी बाकी फसलों के लिए भी ठेका खेती कराएगी, भाटिया ने कहा कि कंपनी जई के लिए भी यही रास्ता अपनाने की योजना बना रही है। पेप्सी अपने क्वेकर ब्रांड ओट के लिए जई का आयात करती है। कंपनी देश में इसकी खेती करने के लिए विभिन्न कृषि विश्वविद्यालयों से बातचीत कर रही है।

नक्सल समर्थित आदिवासी समूह की ओर से बुलाई गई बंद के बीच केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम के पश्चिमी मिदनापुर जिले के नक्सल प्रभावित लालगढ़ इलाके के दौरे से पूर्व माओवादियों ने शनिवार को सीआरपीएफ के जवानों को निशाना बनाते हुए एक बारूदी सुरंग विस्फोट किया।

कृषि भारत के लगभग दो तिहाई कार्यबल के लिए आजीविका का साधन है। इसके फलस्‍वरूप यह अर्थव्‍यवस्‍था के सबसे अधिक महत्‍वपूर्ण क्षेत्रों में से एक है।1 अप्रैल से देशभर में शिक्षा का मौलिक अधिकार लागू हो गया है। इसके प्रभावी क्रियान्वयन के लिए मौजूदा सिस्टम नाकाफी है। जिले में अभी ७ हजार शिक्षकों की कमी है। आलम यह है कि एक शिक्षक के भरोसे सैंकड़ों छात्र पढ़ाई कर रहे हैं। ऐसे में अनिवार्य और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देना शिक्षा विभाग के लिए कड़ी चुनौती से कम नहीं है। इधर निजी स्कूल संचालक २५ फीसदी सीट गरीब बच्चों को देने में नाक-भों सिकोड़ रहे हैं।

सरकार ने सेल, जेएसडब्ल्यू तथा एस्सार स्टील द्वारा इस्पात की कीमतों में की गई 2500 रुपये प्रति टन तक की बढ़ोतरी को अस्थायी रुख बताया है और कहा है कि इससे मुद्रास्फीति दबाव की कोई संभावना नहीं है। इस्पात मंत्री वीरभद्र सिंह ने कहा कि घरेलू बाजार में हाल में इस्पात की कीमतों में बढ़ोतरी हुई है, लेकिन यह अस्थायी है और इससे महंगाई बढ़ने की संभावना नहीं है।

 

नए उत्सर्जन मानकों के 1 अप्रैल से लागू होने के साथ ही कार कंपनियों ने एक बार फिर विभिन्न कार मॉडलों में कीमतें 1 से 3 फीसदी तक बढ़ा दी हैं। करीब 13 शहरों में वाहनों को बीएस-3 से बीएस-4 मानकों में बदलने और बाकी पूरे देश में बीएस-2 से बीएस-3 मानकों के अनुरूप उन्नयन करने से बढ़ी लागत को पाटने के लिए कंपनियों ने कीमतें बढ़ाई है।

 

 आजादी के समय कृषि क्षेत्र से प्राप्‍त राजस्‍व आज के राजस्‍व के अपेक्षा काफी कम था। राजस्‍व में इस वृद्धि का मुख्‍य कारण कृषि उत्‍पादन में वृद्धि है जो हरित क्रांति के कारण हुआ है।दुनिया के विकसित देशों में खुदरा व्यापार (रिटेल ट्रेड) को उद्योग का दर्जा प्राप्त है और आज की तिथि में यह विश्व का सबसे बड़ा निजी उद्योग है। विश्व के पूंजीवादी-साम्राज्यवादी देशों के खुदरा व्यापार पर तो बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का काफी हद तक कब्जा हो गया, अब उनकी निगाहें भारत, चीन जैसे एशियाई देशों के खुदरा बाजारों पर टिकी हुई हैं। सम्पूर्ण विश्व का खुदरा व्यापार करीब 315 लाख करोड़ रू. का है, जिसमें अमेरिका की हिस्सेदारी 53 लाख करोड़ रू. की है।

पूंजीपति वर्ग, प्रदुषण संबंधी, सभी लोगों को, व्यक्तिगत तौर पर जिम्मेदार ठहराकर, अपने गुनाहों को छिपाने का यत्न करते हैं. पहले प्रदुषण फैलायो, फिर प्रदुषण हटाने की मुहीम के नेता के रूप में, ऐसी स्कीमें और हल पेश करो कि और मुनाफे कमाए जा सकें - अपने गुनाहों पर पर्दा डाला जा सके. सब कुछ इस प्रकार व्यवस्थित किया जाता है कि असल गुनाहगार, मुक्तिदाता दिखाई दे.अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के अनुसार पूरे २००७ के दौरान खाद्यान्न की कीमतों में ४० प्रतिशत से भी ज्यादा की वृद्धि हुई है. यहाँ महत्वपूर्ण बात यह है कि उन खाद्य पथार्थों की कीमतों में सबसे ज्यादा बढोत्तरी हुई है जिन पर तीसरी दुनिया की गरीब जनता की सबसे ज्यादा निर्भरता है–यानि, चावल, गेहूं और मक्का. २००७ में गेहूं की कीमतों में ७७ प्रतिशत और चावल कीमतों में २० प्रतिशत की और मक्के की कीमतों में १५० प्रतिशत की वृद्धि हुई. गेहूं की कीमतों में भी पहले जैसी अस्थिरता बरक़रार रही है. वहीं मक्का, जो कि लातीनी अमेरिका देशों का मुख्या आहार है, लगातार महंगा होता गया है. पिछले दो वर्षों में विश्व बाज़ार में मक्के की कीमत दोगुनी से भी ज्यादा हो गई है. इन मुख्य खाद्यान्नों  के अतिरिक्त मांस, वनस्पति तेल आदि की कीमतों में भारी बढोत्तरी हुई है. जैसा कि हर संकट के मामले में होता है, शाषक वर्गों ने इस संकट के कारणों को गरीब जनता पर मढ़ दिया. मसलन जार्ज बुश और कोंडोलिजा राइस का यह कहना कि भारत और चीन के लोगों के ज्यादा खाने के कारण खाद्यान्न संकट पैदा हुआ है. इस बात के पीछे का हास्यापद तर्क यह है कि पिछले लगभग दो दशकों में इन देशों की अर्थव्यवस्थाओं की विकास दर अधिक होने के कारण खाद्यान्नों की मांग उनकी आपूर्ति से बढ़ गई है.यह बात सच है कि भारत और चीन के धनाढय वर्गों को पूंजीवादी विकास और वृद्धि दर का भरपूर फायदा मिला है और उनकी खाद्यान्न खपत बढ़ गई है. लेकिन इन देशों में गरीबों के आहार में कमी आई है, सच तो यह है कि भारत में आहार की प्रति व्यक्ति खपत १९८० के दशक से भी कम है और चीन में आज की खाद्यान्न की प्रति व्यक्ति खपत १९९६ से भी कम है!

 

तकनीक, प्रकृति, उत्पादन प्रक्रिया (श्रम-प्रक्रिया), दैनिक जीवन का पुनरुत्पादन, सामाजिक संबंध, मानसिक अवधारणाएं को किसी मकानिकी फ्रेमवर्क में नहीं बल्कि उन्हें कहीं अधिक व्यापक और विस्तृत - इनके बीच संबंधों और विरोध से उपजी गतिकी से - सांगोपांग तरीके से, समझना जरूरी है

सत्तर के दशक की हरित क्रांति खेती, सिंचाई सुविधाओं का विस्‍तार करने, उन्‍नत गुणवत्ता वाली बीजों को प्रदान करने, खेती की तकनीकों एवं पौध संरक्षण में सुधार करने के अंतर्गत अतिरिक्‍त क्षेत्रों को लाने के लिए उत्तरदायी थी।

कई वर्षों से कृषि केंद्र तथा राज्‍य सरकारों की शीर्ष प्राथमिकताओं में से एक प्राथमिकता के रूप में उभरी है। इस बात को ध्‍यान में रखते हुए कृषि उत्‍पादकता तथा लाखों किसानों जो देश को भोजन प्रदान करने के लिए कार्य करते हैं, के जीवन स्‍तर को सुधारने के लिए विभिन्‍न योजनायें शुरू की गई हैं।

वर्ष 2000 में सरकार ने प्रथम राष्‍ट्रीय कृषि नीति (बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं) की घोषणा की। इस नीति का मुख्‍य उद्देश्‍य निम्‍नलिखित है:

  • भारतीय कृषि की अनप्रयुक्‍त व्‍यापक विकास संभावनाओं को कार्यान्वित करना
  • कृषि के त्‍वरित विकास को सहायता प्रदान करने के लिए ग्रामीण अवसंरचना को मजबूत बनाना
  • मूल्‍य अभिवृद्धि को प्रोत्‍साहन देना, कृषि कारोबार के विकास को तेज करना
  • ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार सृजित करना
  • सभी किसानों के लिए उचित जीवन स्‍तर प्राप्‍त करना
  • शहरी क्षेत्रों में विस्‍थापना को हतोत्‍साहित करना तथा आर्थिक उदारीकरण तथा वैश्‍वीकरण से उदभूत होने वाली चुनौतियों का सामना करना

इस खंड में हम मृ‍दा, कृषि उपस्‍कर, ऋणों तथा विभिन्‍न फसलों के संव्‍यवहार जैसे विषयों पर महत्‍वपूर्ण सूचना प्रदान करते हैं। कृ‍षक तथा अन्‍य नागरिक जो कृषि का कार्य करने के इच्‍छुक हैं, को यह खंड अत्‍यंत ही मूल्‍यवान लगेगा।

 

प्राकृतिक आपदाएं और फसल संरक्षण

स्‍वतंत्रता से ही, भारत ने बड़ी संख्‍या में प्राकृतिक आपदाओं यथा भूकंप, बाढ़, सूखा और कीट आक्रमणों के धक्‍कों को झेला है। इन आपदाओं के प्रति अति संवेदनशील होने का मुख्‍य कारण भारत की भौगोलिक अवस्थिति, जलवायु तथा अन्‍य भौतिक लक्षण हैं। देश की बढ़ती हुई आबादी ने किसानों को बाढ़ ग्रस्‍त इलाकों, सूखाप्रवण क्षेत्रों, चक्रवात प्रवण क्षेत्रों और भूकंपी क्षेत्रों जैसे जोखिमपूर्ण क्षेत्रों में बसने के लिए मजबूर किया है। फसलों के नष्‍ट होने के लिए उत्तरदायी प्राकृतिक आपदाएं देश की अर्थव्‍यवस्‍था को तबाह कर देती हैं। कीमतें अत्‍यधिक उच्‍च स्‍तर तक बढ़ जाती हैं और गरीब भूखे मरते हैं।

ऐसी आपदाओं से जूझने का सर्वोत्तम तरीका है किसी भी संभाव्‍यता के लिए तैयार रहना। यह ध्‍यान में रखते हुए सरकार ने किसानों के लिए प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए आकस्मिकता योजनाएं तैयार की हैं। सरकार प्राकृतिक आपदाओं से ग्रस्‍त किसानों को क्षतिपूर्ति और अन्‍य वित्तीय सहायता भी प्रदान करती है। ऐसा उन्‍हें कृषि योग्‍य वस्‍तुओं में निवेश करने और उनका उत्‍पादन करते रहने के लिए प्रोत्‍साहित करने हेतु किया जाता है।

बाढ़

यह निर्धारित करने में कि किसी भी वर्ष में फसल प्रचुर होगी, सामान्‍य होगी अथवा खराब होगी, मानसून महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाता है। अत्‍यधिक वर्षा नदियों, दरियाओं और झीलों के उमड़ाव में परिणत होती है। यह अतिरिक्‍त जल निम्‍नतर क्षेत्रों को पानी से भर देता है और बाढ़ की स्थिति पैदा करता है। बाढ़ न केवल जान और माल को नष्‍ट करती है बल्कि ग्रीष्‍म में किया गया संपूर्ण फसल उत्‍पादन कार्य भी नष्‍ट हो जाता है। कुछ फसलें अत्‍यधिक पानी वहन नहीं कर पाती और वे किसानों को कर्ज के बोझ तले छोड़कर नष्‍ट हो जाती हैं। राष्‍ट्रीय बाढ़ आयोग ने भारत में बाढ़ प्रवण क्षेत्र का मूल्‍यांकन संपूर्ण क्षेत्र के लगभग 12 प्रतिशत पर किया है।

जब बाढ़ आती है, तो केन्‍द्र और राज्‍य सरकारें दोनों इस नुकसान को कम करने के लिए विभिन्‍न योजनाओं की घोषणा करते हैं। किसानों को सरकार की योजनाओं में शामिल किया जाता है। सरकार के कार्यकलापों में आवास, खाद्य आपूर्ति, मलबे की सफाई और व्‍यावसायिक प्रशिक्षण के प्रावधान शामिल है। प्राकृतिक आपदा पड़ने पर प्रधान मंत्री, प्रधान मंत्री राष्‍ट्रीय राहत कोष से प्राकृतिक आपदाओं में मरने वालों के स्‍वजनों के लिए क्षतिपूर्ति की घोषणा करते हैं।

सूखा

मुख्‍य मानसून के न होने अथवा अपर्याप्‍त होने की स्थिति को 'सूखा' पड़ना कहा जाता है। अपर्याप्‍त सिंचाई के कारण यह फसल के न होने, पेय जल की कमी और ग्रामीण तथा शहरी समुदाय के लिए अकारण कष्‍ट में परिणामित होता है। भारत सरकार द्वारा सूखे की घोषणा करने का कोई प्रावधान नहीं है। राज्‍य सरकारों द्वारा प्रत्‍येक राज्‍य अथवा राज्‍य के किसी एक भाग के लिए सूखा घोषित किया जाता है। भारत में सूखे को नियंत्रित करने और स्थिति को संभालने के लिए किए जाने वाले मुख्‍य उपाय निम्‍नानुसार हैं:

  • निगरानी और शीघ्र चेतावनी: भारतीय मौसम विज्ञान विभाग सूखा संबंधी निगरानी और का कार्य करता है। कृषि विभाग ऐसी आपातकालीन योजनाएं तैयार करता है जो किसानों को सूखा जैसी स्थिति उत्‍पन्‍न होने की स्थिति में उनकी फसलों को बचाने में सहायता करती हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं) द्वारा तैयार अद्यतन मौसम स्थिति और फसल संबंधी (बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं) यहां पर उपलब्‍ध है।
  • सूखे की घोषणा: राज्‍य मंडल अथवा तहसील के स्‍तर पर वर्षा की निगरानी करते हैं और दूरस्‍थ संवेदी अभिकरणों से सूचना एकत्र करते हैं। यदि सूचना से यह प्रमाणित होता है कि सूखा पड़ा है तो राज्‍य सरकार सूखे की स्थिति की घोषणा कर सकती है। फिर केन्‍द्र सरकार सूखे से प्रभावित लोगों को राहत देने करने के लिए वित्तीय और संस्‍थागत प्रक्रियाओं को सहायता प्रदान करती है।
  • सूखे के प्रभावों की निगरानी और प्रबंधन: केन्‍द्र सरकार वित्त आयोग द्वारा तैयार किए गए सहायता मानदण्‍डों के अनुसार वित्तीय सहायता प्रदान करता है। राज्‍यों को सहायता आपदा राहत कोष के रूप में दी जाती है, जो राज्‍यों को दो किश्‍तों में निर्मुक्‍त की जाती है, एक मई में और दूसरी अक्‍तूबर में।

पौध संरक्षण

सरकार द्वारा चलाई जा रही कीट प्रबंधन योजनाओं में से सर्वाधिक महत्‍वपूर्ण एकीकृत कीट प्रबंधन योजना (आईपीएम) - बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं है। यह योजना को आर्थिक प्रारंभिक स्‍तर अथवा ईटीएल से नीचे रखने के लिए सर्वज्ञात कीट नियंत्रण उपायों के सर्वोत्तम मिश्रण की ओर लक्षित है। केन्‍द्र सरकार टिड्डियों की संख्‍या की निगरानी करने और नियंत्रित करने के लिए योजना भी चलाती है।

सरकार ने पौध संरक्षण तरीकों में प्रशिक्षण देने के लिए हैदराबाद में राष्‍ट्रीय पौध संरक्षण प्रशिक्षण संस्‍थान (बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं) का गठन किया है। यह संस्‍थान पौध संरक्षण के विभिन्‍न पहलुओं पर दीर्घ और लघु अवधि के प्रशिक्षण कार्यक्रमों का आयोजन करके पौध संरक्षण प्रौद्योगिकी में मानव संसाधन विकास में विशिष्टिकृत है। यह विदेशी नागरिकों को भी प्रशिक्षण देता है जो विभिन्‍न एजेंसियों के साथ द्विपक्षीय कार्यक्रमों द्वारा प्रायोजित होते हैं।

पौध संरक्षण पर और सूचना सरकार की कीट प्रबंधन और पौध संरक्षण योजनाओं (बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं) के द्वारा उपलब्‍ध हैं।

फसल बीमा

फसल का उत्‍पादन मौसम की तरंगों और कीटों के अक्रमण को रोकने पर निर्भरत हैं। चूंकि शीर्षस्‍थ व्‍यावसायिकों के लिए भी मौसम के बारे में पूर्व सूचना देना अत्‍यंत कठिन है और कीट कभी भी आक्रमण कर सकते हैं, फसल का बीमा कराना सहायक होता है। यह बीमा अधिकांश घटनाओं यथा बाढ़, सूखा, फसलों की बीमारियों और कीटों द्वारा आक्रमण से बचाता है।

वर्ष 1985 में, प्रमुख फसलों के लिए एक 'संपूर्ण जोखिम व्‍यापक फसल बीमा योजना' (सीसीआईएस) शुरू की गई थी, जो सातवीं पंच वर्षीय योजना के साथ - साथ शुरू की गई थी। तत्‍पश्‍चात 1999 - 2000 में स्‍थान इसका राष्‍ट्रीय कृषि बीमा योजना (बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं) और एनएआईएस ने लिया। मूलत: एनएआईएस का प्रबंधन जनरल इंश्‍योरेंस कंपनी (बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं) किया जाता था। बाद में, इस योजना के कार्यान्‍वयन के लिए एक नए निकाय नामत: एग्रीकल्‍चर इंश्‍योरेंस कंपनी ऑफ इंडिया (बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं) की स्‍थापना की गई।

राष्‍ट्रीय कृषि बीमा योजना की राष्‍ट्रीय कृषि बीमा के नाम से भी जाना जाता है। यह एक व्‍यापक योजना है जो राष्‍ट्रीय आपदा, कीटों अथवा रोगों के परिणामस्‍वरूप प्रमुख फसलों को किसी भी प्रकार का नुकसान होने की घटना में किसानों को बीमा कवरेज और वित्तीय सहायता प्रदान करती है। यह योजना कृषि संबंधी प्रगतिशील पद्धतियां, उच्‍च मूल्‍य आगतों और आधुनिक प्रौद्योगिकी को अपनाने के लिए प्रोत्‍साहित भी करती है।

एनएआईएस सभी राज्‍यों और संघ राज्‍य क्षेत्रों के लिए एनएआईएस योजना के अलावा, एग्रीकल्‍चर इंश्‍योरेंस कंपनी ऑफ इंडिया कृषि और उससे संबद्ध विषयों से संबंधित अन्‍य बीमा योजनाओं का सृजन और कार्यान्‍वयन भी करती है। वर्षा बीमा (बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं), सुख सुरक्षा कवच (बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं) और कॉफी बीमा (बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं) ऐसी कुछ योजनाएं हैं।

स्रोत: राष्‍ट्रीय पोर्टल विषयवस्‍तु प्रबंधन दल

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नंदीग्राम फायरिंग पूर्व नियोजित थी । आतंकवादियों के मददगार नेताओं की लिस्ट । न्यायाधीश सब्बरवाल के सीलिंग के आदेश और उनके बेटों का व्यवहार न्यायिक मर्यादाओं को भंग करता है: शांति भूषण

 
यदि किसानों की संगठित सहकारी क्रय-विक्रय समितियाँ होतीं और गाँव-गाँव में उनके अपने गोदाम होते तो किसान अपनी उपज को इन गोदामों में रख कर उनकी जमानत पर बैंकों से अग्रिम धन पा सकता था ताकि वह अपनी तुरन्त की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें और व्यापारियों के हाथ सस्ते मूल्य पर अपने उत्पाद को उसे न बेचना पड़े।
ऐसी सहकारी क्रय-विक्रय समितियों का गठन करना बहुत कठिन काम नहीं था। इसकी पहली शर्त थी कि व्यापक पैमाने पर ग्रामीण गोदामों का निर्माण किया जाय। पंचायत भवन तो बने लेकिन गोदामों का निर्माण नहीं हुआ। यह आकस्मिक नहीं था। यदि सहकारिता के आधार पर ऐसी व्यवस्था की जाती तो किसानों की व्यापारियों पर निर्भरता समाप्त हो जाती। क्रय विक्रय समितियाँ उत्पाद पर कुछ मुनाफा लेकर बेचती जिस कारण कृषि उपज के मूल्यों में वृध्दि हो जाती जो सरकार को स्वीकार नहीं है। सरकार सार्वजनिक प्रणाली के लिये गेहूँ चावल जिस मूल्य पर खरीदती है उसमें उत्पादन लागत ही शामिल होती है मुनाफे के लिये कोई प्रावधान नहीं होता। तब भी किसान वहाँ अपना उत्पादन इस कारण बेचते है कि वह व्यापारी द्वारा लिये गये मूल्य से अधिक होता है। हाल ही में स्वामीनाथन समिति ने यह स्वीकार किया है कि सरकार किसानो की लागत मूल्य पर 50 प्रतिशत मुनाफा देकर खाद्यान्नों को खरीदे परन्तु सरकार ने इस सुझाव को अस्वीकार कर दिया है।
 
भारत वर्ष सस्ते कच्चे माल और सस्ती मजदूरी के बल पर वैश्वीकरण के दौर में संसार के बाजार में प्रतिस्पर्धा कर सकता है। सभी विकसित देशों ने मूल्यों के जरिये किसानों का शोषण करके ही औद्योगीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया। भारत वर्ष भी उसी राह पर चल रहा है।
परन्तु यदि किसान को समुचित मूल्य नहीं मिलेगा तो न केवल उसके सामने जीविका का संकट रहेगा वरन् वह कृषि में कोई निवेश नहीं कर सकेगा जिसके अभाव में उत्पादन में वृध्दि नहीं हो सकेगी। देश में 70 प्रतिशत किसानों के पास आधा हेक्टेयर से कम भूमि है। एक हेक्टेयर में सकल कृषि उपज का मूल्य 30,000 रु. अनुमानित है। अत: लगभग तीन चौथाई किसान परिवार 15,000 रु. वार्षिक आमदनी पर जीवन यापन कर रहे हैं। गरीबी रेखा 21,000 रु. मानी गई है। गरीब किसान मजदूरी करके आय में कुछ वृध्दि करते हैं। परिवार में कुल लोग यदि बाहर चले गये है या किसी अन्य काम में लग गये है तो उनकी आय में कुछ वृध्दि होती है। परन्तु एक परिवार यदि कृषि पर ही निर्भर रहे तो उसके पास कम से कम 1 हेक्टेयर सिंचित भूमि होनी ही चाहिए ताकि वह गरीबी रेखा के ऊपर रह सके। देश में 80 प्रतिशत किसान परिवार के पास 1 हेक्टेयर से कम भूमि है।
अन्य देशों में विकास के साथ-साथ कृषि पर निर्भर लोगों की संख्या घटी पर भारत में ऐसा नहीं हो रहा है। स्वतन्त्रता के बाद से किसानों की संख्या ढाई गुना बढ़ी है जबकि बोये गये क्षेत्र में नाममात्र की वृध्दि हुई है। इस समय किसानों की संख्या में लगभग 2 प्रतिशत प्रतिवर्ष वृध्दि हो रही है, प्रति कृषक बोया गया क्षेत्र घट रहा है। सिंचाई के क्षेत्र में कोई विस्तार नहीं हो रहा है यद्यपि केन्द्र और राज्य सरकारें 25,000 करोड़ रुपया प्रतिवर्ष सिंचाई पर खर्च कर रही हैं। प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष अनाज का उत्पादन घट कर 174 किलोग्राम हो गया है तथा दालों का उत्पादन मात्र 12 किलोग्राम रह गया है। कृषि क्षेत्र में चोटी के 5 प्रतिशत के पास 40 प्रतिशत भूमि है।
इस यथार्थ के परिपेक्ष्य में यदि कृषि संकट को देखा जाय तो यह स्पष्ट होगा कि नीतियों में बगैर मूलभूत बदलाव के इस संकट का मुकाबला नहीं किया सकता।
 
मुख्य प्रश्न कृषि में निवेश बढ़ाने की आवश्यकता है। केवल चोटी के 2-3 प्रतिशत किसान ही अपनी बचत से कुछ निवेश करने में समर्थ हैं। कृषि एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें सार्वजनिक निवेश ही हो सकता है, जैसे नहर निकालना या गहरे नलकूपों का निर्माण जिसमें गरीब देश में तो प्रथम चरण में कार्य सार्वजनिक निवेश से ही निवेश के गतिरोध को दूर किया जा सकता है। अत: सार्वजनिक निवेश की प्राथमिकता कृषि क्षेत्र में होना चाहिए और इसके अन्तर्गत सिंचाई, मृदा एवं जल संरक्षण पर भी सबसे अधिक बल दिया जाना चाहिए।
 
अपने देश में जिस विकास की बात की गई, उसमे कृषि एजेन्डा पर नहीं है। कृषि संवर्गीय कार्य जैसे-पशुपालन, जलागम प्रबन्धन, वानकी, कृषि शिक्षा एवं शोध, बीमा, सहकारिता, कृषि विपणन, सिंचाई, ग्रामीण रोजगार पर बजट के 20 प्रतिशत से अधिक का कभी प्रावधान नहीं हुआ। यद्यपि लगभग 60 प्रतिशत लोग कृषि पर निर्भर हैं। उदाहरण के लिये वर्ष 2007-08 में केन्द्रीय बजट का आकार 6,80,000 करोड़ है परन्तु कृषि कार्य, बीमा, भण्डारण, सहकारिता, पशुपालन, शोध एवं शिक्षा पर 9400 करोड़ का ही प्रावधान है जो कुल बजट का 1.3 प्रतिशत है। कृषि बीमा पर कुल 2500 करोड़ का प्रावधान है। आवश्यकता इस बात की थी कि नाममात्र प्रीमियम पर सभी फसलों का बीमा हो। परन्तु बीमा योजना केवल सांकेतिक ही है। यदि फसल बीमा को सही मानों में लगभग नि:शुल्क चलाया गया होता तो फसल नष्ट होने के कारण प्रतिवर्ष हजारों की संख्या में किसान आत्महत्या न करते। कृषि मंत्री ने कुछ समय पहले लोक सभा में बताया था कि 11,000 किसान प्रतिवर्ष आत्महत्या करते हैं जिसमें भारी संख्या में कर्ज न अदा करने वाले किसान हैं। ऋणग्रस्त किसानों को बिना व्याज के नया ऋण दिया जा सकता था ताकि वे पुराना कर्ज अदा कर दें। बैंकों को यदि थोड़ी ब्याज सब्सिडी दी जाती तो वे बिना ब्याज या बहुत कम ब्याज की दर पर ऋण दे सकते थे। ऐसे ऋणों की गारन्टी भारत सरकार ले सकती थी जैसा कि वह बड़े निकायों के ऋण के सम्बन्ध में करती है। भारत सरकार ने 1,00,000 करोड़ रुपयों की इस प्रकार भी गारन्टी ली है। किसानों को भी ऋण की गारन्टी दी सकती है।
यहां यह स्मरण रहे कि केन्द्र सरकार पुलिस पर लगभग 20,000 करोड़ रूपये व्यय कर रही है जब कि उपरोक्त कृषि कार्यों के लिये इसके आधे का ही प्रावधान होता है। आधी से अधिक भूमि आज भी असिंचित है परन्तु केन्द्रीय बजट में सिंचाई पर इस वर्ष कुल व्यय 872 करोड़ का प्रस्तावित है जो केन्द्रीय पुलिस बजट के बीसवें भाग से भी कम है। सिंचाई पर राज्य सरकारें अधिक व्यय करती हैं। परन्तु सरकारी व्यय का यह आलम है कि केन्द्र एवं राज्य द्वारा सिंचाई पर प्रतिवर्ष 25,000 करोड़ व्यय करने के बावजूद सिंचित क्षेत्र स्थिर है। ऐसा इसलिये है कि विकास के नाम पर बेवजह अफसरों और कर्मचारियों की भर्ती हुई है जिनके वेतन और भत्तो पर ही कृषि बजट का 70 प्रतिशत निकल जाता है।

देश के 80 प्रतिशत किसानों के पास भूमि इतनी कम है कि वह जीविका के लिये पर्याप्त नहीं है। उन्हें कृषि के बाहर काम मिलना चाहिए परन्तु सरकारी नीतियां ऐसी हैं कि संगठित क्षेत्र में रोजगार घट रहा है। 2004 में इसमें 5 लाख की गिरावट आई। परन्तु इस विशाल जन समुदाय को ग्राम की प्राकृतिक सम्पदा के संवर्धन उन्नयन में लगाया जा सकता है। देश में लगभग 4 करोड़ हेक्टेयर भूमि ऐसी है जिसका कोई उपयोग नहीं हो रहा है। जलागम प्रबन्धन के आधार पर इस भूमि को उपयोगी बनाया जा सकता है। यदि वर्षा के पानी को समुचित ढंग से इकट्ठा किया जाय तो इस भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ सकती है। जहां भूमि बहुत खराब है उसे तालाबों और पोखरों में बदला जा सकता है। जल संचय का प्रावधान न होने के कारण पलामू, जहाँ पंजाब से दूनी वर्षा होती है, सूखा ग्रस्त है। यही हालत देश के बड़े भूभाग की है। अकेले जल प्रबन्धन पर ही तमाम बेरोजगार लोगों को काम पर लगाया जा सकता है और 60 प्रतिशत कृषि भूमि जो असिंचित है उसे सिंचित किया जा सकता है। परन्तु जलागम प्रबंधन के लिये भारत सरकार के बजट में मात्र 1,000 करोड़ रुपये का ही प्रावधान है। देश में जिस प्रकार सुरक्षा के लिये एक सेना है उसी प्रकार भूमि और जलागम प्रबंधन आदि कार्यों के लिये भी एक भूमि सेना खडी की जा सकती है जो भूमि के समतलीकरण, जलसंचय, वृक्षारोपण आदि कार्य में निरन्तर लिप्त रहे। एक व्यक्ति को 30,000 रू. की वार्षिक मजदूरी पर (रु. 100 प्रतिदिन वर्ष में 300 दिन के लिये) 40,000 करोड़ रुपये में 1 करोड़ की स्थाई भूमि-सेना खड़ी की जा सकती है जो एक बहुत ही उत्पादक कार्यक्रम से जुड़ी रहेगी।

संविधान के 73वें संशोधन के अनुसार ग्राम विकास से सम्बन्धित सारे कार्य ग्राम पंचायतों के माध्यम से होना चाहिए, वहाँ नौकरशाही के लिये कोई स्थान नहीं होगा। परन्तु देश में भ्रष्ट नौकरशाही और राजनेताओं का ऐसा गठबंधन है कि कोई भी राज्य सरकार संविधान के इस निर्देश पर अमल करने के लिये तैयार नहीं है जिसके फलस्वरूप लोगों में उदासीनता है और भ्रष्टाचार का बोलवाला है। ऐसी स्थिति में विकास कार्यों पर बजट बढ़ा देना ही पर्याप्त नहीं है। इसमें लोगों की भागीदारी भी सुनिश्चित किया जाय। फिर भी सार्वजनिक निवेश को बढ़ाना अपरिहार्य है। साधनों के अभाव में कृषि एवं ग्राम विकास आदि पर बहुत कम खर्च हो रहा है। भारत सरकार ने सभी वर्गों और कम्पनियों की आय आदि पर इतनी छूट दे रखी है कि जितना राजस्व वसूल होता है उसका आधा छूट में निेकल जाता है। इस प्रकार वर्ष 2007-08 में केन्द्रीय बजट के अनुसार 2006-07 में सरकार को 2,35,191 करोड़ रुपयों की हानि हुई। यदि इन छूटों को वापस ले लिया जाय तो कृषि, ग्राम विकास, भूमि एवं जल संसाधन विकास का केन्द्रीय बजट पांच गुना बढ़ाया जा सकता है।

इस दिशा में बैंकों का भी बड़ा योगदान हो सकता है क्योंकि वे 20 लाख करोड़ रु. का ऋण बांटते हैं परन्तु इसमें ग्रामीण क्षेत्र का अंश 10 प्रतिशत ही है। विचित्र बात यह है कि ग्रामीण शाखाओं से प्रतिवर्ष 1,00,000 करोड़ रुपया तथा अर्ध्द नगरीय शाखाओं से 2,00,000 करोड़ रुपया नगरों और महानगरों की ओर प्रवाहित हो जाता है। यदि ग्रामवासियों को बैंकों द्वारा दिये जाने वाले ऋण की सरकार गारन्टी ले तो बैंकों को ऋण देने में कोई कठिनाई नहीं होगी। ग्रामवासियों को भी इसी प्रकार की गारन्टी देकर ग्रामीण अंचल की बचत को ग्रामीणों के लिये उपलब्ध किया जा सकता है। बैंक अपने ऋण का एक तिहाई उनको देते हैं जो 25 करोड़ रुपये से अधिक ऋण लेते हैं। यही लोग ऋण वापस नहीं करते। किसान ऋण वापस करने में असमर्थ होने पर आत्महत्या कर लेता है लेकिन नगरों के बड़े घाघ, जिन पर लाख करोड़ रुपयों से ज्यादा बकाया है कभी आत्महत्या नहीं करते। उनके अन्दर कोई नैतिकता नहीं है। उनका करोड़ों का बकाया प्रति वर्ष माफ कर दिया जाता है।

सरकार द्वारा किसान और किसानी की उपेक्षा का लाभ अब देशी और विदेशी बड़ी कम्पनियां उठाना चाहती हैं। वे किसानों से ठेके पर खेती कराकर मुनाफा कमाना चाहती हैं। वे किसानों को खाद, बीज आदि उपलब्ध करायेंगी तथा उनकी उपज को तत्काल खरीद कर कुछ बढ़ा हुआ मूल्य देंगी। परन्तु किसान को वहीं फसल बोना होगा जिसे वे चाहेंगी। इससे किसान को क्षणिक लाभ हो सकता है परन्तु देश की कृषि व्यवस्था का मुनाफाखोरों के हाथ में चला जाना घातक होगा। सरकार भी इसी नीति को बढ़ावा दे रही है क्योंकि स्वयं वह खेती के उध्दार के लिये कुछ नहीं करना चाहती। ऐसी स्थिति में कृषि का संकट और गहन होता जायेगा। इस वर्ष विदेशों से सरकार 1 करोड़ टन गेहूँ का आयात 1300 रु. प्रति टन के हिसाब से करने जा रही है परन्तु अपने किसानों कां 850 रुपये से अधिक देने के लिये तैयार नहीं है। देश का पैसा विदेशों में चला जाये परन्तु अपने किसान को न मिले, यही सरकारी नीति है।
 

देख रही है पूरी अयोध्या इस दर्दनाक दृश्य को! होनी के सामने भला किस की चल सकती है? आज तक जो नहीं सुना जा रहा था, वह खुल कर सुनने में आ रहा है- अब किसान नहीं बचेगा। आज तक जो कथा- कहानियों की बातें थी वे सामने घटित हो रही हैं- जिस बाड़ को खेत की रखवाली के लिए बड़े जतन से बनाया वही बाड़ खेत को चरे डाल रही है। जिन सांसदों और विधायकों को अपने प्रतिनिधि के रूप में राजकाज चलाने के लिए भेजा था उन्होंने ऐसा राज चलाया कि उसमें आम आदमी के लिए कोई जगह ही नहीं है। संविधान में लिखा है -समानता होगी सो शुरूआती दौर के वे सभी कानून शिथिल कर दिए या खरिज कर दिये जिनसे गैर बराबरी पर अंकुश लगता। आज करोड़पतियों का राज है। संसद में 85 फीसदी सांसद करोड़पति हैं। कहां से आई यह अकूत संपदा? कोई पूछने वाला नहीं है।

पैसा पहले भी था कुछ लोगों के पास, परन्तु पैसे वाले का समाज में सम्मान नहीं था। पैसा पहले भी था परन्तु उस पैसे का कोई उपयोग नहीं था। विदेशों में ऐय्याशी की वस्तुओं का आयात नहीं हो सकता था। वातानुकूलति गाड़ियां नहीं बन सकती थी। पैसा पहले भी था, परन्तु उससे खेती की जमीनें नहीं खरीदी जा सकती थी। नियम और कानून पैसे की ताकत पर अंकुश थे। परन्तु देखते-देखते हमारे ही पहरेदारों ने उस पैसे की ताकत को खत्म करने वाले सब नियम औश्र कानून कचड़े की पेटी में फेंक दिए। 'सर्वे गुणा: कांचनमान्प्रयन्ति' ('सब गुणों का सोने में निवास है') का झंडा फहरा रहा है।
और अंत में राज्य किसका है? किसके साथ खड़ा है? के सवाल पर सब उलट-पलट गए। जमीन के मामले में पहले तो गुलामी के जमाने की राज्य की प्रभुसत्ता को आजादी के बाद भी उसी ताह कायम रखा। राज्य का अर्थ आम जन का प्रतिनिधि न होकर उन प्रतिनिधियों और उनके कारकुनों का राज्य हो गया। सो संसाधनों का मालिक उनसे अपनी रोजी-रोटी चलाने वाले आम लोग न होकर शासन-तंत्र हो गया। पहले तो गुलामी के कानून भू- अर्जन अनिधियम के तहत मनमाने ढंग से लोगों की जमीन हड़प कर उद्योगपतियों को कौड़ी के मोल दे डाली। जब लोगों में इस बाबत कुछ जागरूकता आई और भूमि- अधिग्रहण करने के अधिकार पर ही सवालिया निशान लगाना शुरू की तो सरकारी लोगों ने ऐसी चाल चली जिसके सामने चाणक्य नीति तक शरमा जाए। कह दिया चलो अब इन मामलों में सरकार बीच में नहीं पड़ेगी, किसान और उद्योगपति आपस में लेनदेन का फैसला कर लें।

यहां आकर धूर्ता पर शरमा गई :
कैसा ऊंचा पांसा फेंका आम लोगों के प्रतिष्ठानों और उनके कारकुनों ने! सफाई से कह दिया चलो हमारे यानी सरकार के बीच पड़ने से एतराज है तो आपस में फैसलाकर लो। हमारा पूछना है कि आखिर राज्य किस मर्ज की दवा है? राज्य बीच से हट जाए तो क्या स्थिति बनती है- एक ओर किसान अकेला खड़ा है, दूसरी ओर पैसे की ताकत से लैस पूंजीपति। उस पैसे की ताकत से लैस है पूंजीपति जिस पर आज कहीं कोई अंकुश नहीं। जिसने खरीद डाला है सब जन प्रतिनिधियों को भी, अन्यथा धरती से उठने वाले आम लोगों के प्रतिनिधि करोड़पति कैसे हो गए? याद आती है सौ साल पहले हिंद स्वराज में अंग्रेजों की अपनी संसद के बारे में गांधी जी टिप्पणी थी- निपूती वेश्या। पैसे के बल पर वेश्या की तरह उसमें सब कुछ करवाया जा सकता है। सो किसान बनाम पूंजीपति में किसान और पूंजीपति एकल बगाल में हिस्सेदार नहीं है जिसमें बराबरी का जोड़ हो। पूंजीपति के पास पैसा है और पैसे से खरीदा गया पूरा प्रशासन तंत्र। यह प्रशासन तंत्र जन सेवक न होकर पूंजी सेवक है। यही नहीं, पैसे के बल पर रखा गया पूरा गुंडा तंत्र और भविष्य पर भरोसा दिलाया गया दिशाहीन युवा भी उसक इर्द-गिर्द मड़रा रहा है। दूसरी ओर किसान नितांत अकेला है। अरे और तो और लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाली सरकार ने आज तक ग्राम सभा यानी गांव की सामान्य सभा को भी तो मान्यता नहीं दी है। ऐसे में अगर किसान आपस में मिलकर कोई बात करना चाहें या प्रतिरोध करना चाहें तो उसे कानून का उल्लंघन करार दिया जा सकता है। कहने का अर्थ है कि पूरी दुनिया एक और किसान नितांत एकाकी एक ओर। ऐसे में अगर जमीन के साथ उसकी लंगोटी भी न चली जाए तो निपट नंगा होकर दुनिया के खुले और भरे बाजार में घूमने के लिए न मजबूर हो जाए तो अपना भाग्य सराहे!

कहां है राजनीतिक दल
चलिए अकेले में नेता बिक गए, अकेले में प्रशसक बिक गए, परन्तु वह पूरा राजनीतिक तंत्र जिसे लोकतंत्र की आत्मा कहा जाता है, वह कहां है इस अभूतपूर्व घमासान में! कहने को सब किसानों के हिमायती हैं। सब उसे समर्थन देने का वायदा करके ही उसका वोट पाये हैं। सबसे अफसोस की बात यह है कि कोई भी राजनीतिक दल आज तक भारत में किसान खत्म होगा या होने के कगार पर पहुंच गया है इस बावत लोगों के बीच चर्चा करने की जरूरत नहीं समझ रहे हैं। मोटे तौर पर दलों को दो भागों में बांटा जाता है। एक पूंजीवादी व्यवस्था के समर्थक यानी दक्षिण पंथी। दूसरी ओर समाजवादी/साम्यवादी व्यवस्था के समर्थक यानी वामपंथी। वामपंथियों में यह माना जाता है कि समाजवाद के पहले एक ऐसा दौर आयेगा जिसमें पूंजीवादी व्यवस्था कायम होगी। उनका मानना है कि इस पूंजीवादी व्यवस्था में उसकी मृत्यु के बीज होते हैं। यानी एक ओर मुट्ठी भर पूंजीपति होंगे जो पूंजी के बल पर उत्पादन के सभी साधनों पर अपना कब्जा जमा लेंगे। दूसरी ओर होंगे अपना सब कुछ गंवाने वाला सर्वहारा वर्ग, जिसके पास पैर में बेड़ी के अलावा टूटने के लिए कुछ नहीं बच रहेगा। यह सर्वहारा इस अन्यायी व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह कर, उसके चकनाचूर कर देगी और सर्वहारा की एकाधिकारी व्यवस्था कायम होगी। वहां से समाजवादी और साम्यवादी व्यवस्था की स्थापना की निष्कंटक राह होगी जिस पर मानव समाज आगे बढ़ेगा।

इस दक्षिण पंथियों और वाम पंथियों के सोच में अगले चरण में तो पूंजीवादी व्यवस्था का वर्चस्व होगा। उसमें पूंजी के बल पर वह सभी संसाधनों पर कब्जा कर लेगा। दक्षिण पंथियों के अनुसार वही सबसे तर्कपूर्ण और फायदेमंद व्यवस्था होगी। उसमें पूंजीपति सबके लिऐ बाजार के नियमों के अनुसार व्यवस्था करेगा। बाजार में अगर कामगारों की जरूरत नहीं है तो यह तो सिर्ग अनेक रूपों में उसका इंतजाम करेगी- बीमारी, महामारी, कुपोषण। दूसरा यह कि मानव समाज प्रजनन पर नियंत्रण करेगा। हमारे यहां भी तो दो या तीन बच्चों के बाद अब दो से अधिक नहीं की बात चल रही है। चीन में तो 'परिवार में एक बच्चा' की मान्यता क्रांति के तुरत बाद शुरू हो गई थी। जो घोर पूंजीवादी देश हैं उनमें से कुछ में जैसे फ्रांस में आबादी कम हो रही है और साधारण कामकाज के लिए उन्हें दूसरे देशों के नागरिकों को प्रवेश देने की मजबूरी है। इस तरह एक नया संतुलन कायम होगा, इसमें हाय तोबा की जरूरत नहीं है।

इस तरह दोनों ही विचारधाराओं में किसान का खात्मा और पूंजीवादी खेती को अनिवार्य माना गया है। यह इतिहास का नियम है, उसे बदला नहीं जा सकता है। आगे चर्चा के पहले यह जानना जरूरी होगा कि क्या कोई मध्यमार्गी विचारधारा भी है? सच पूछा जाय तो मध्यमार्ग में जो जोते उसकी जमीन पर आम सहमति दे रही हैं। इसी पर बात होती रही है, इसी के नारे लगते रहे हैं। दक्षिण पंथियों और वाम पंथियों ने भी इसमें हां में हां मिालई है क्योंकि इसके खिलाफ कहने का सासह नहीं जुटा पाए। दक्षिण पंथियों का विश्वास था कि ये आदर्शवादी नारे बहुत दिन चलेंगे नहीं और हार-थक कर लोग परिस्थिति से समझौता कर लेंगे। उधर पूंजी की ताकत का असर घटता जाएगा सो किसान अंत में अपनी मौत को स्वाभाविक मान लेगा। नारे चलते रहेंगे और पूंजीवाद की शोभायात्रा चलती रहेगी। आज हम उसी स्थिति में पहुंच गए हैं।

उधर वामपंथियों को -जो जोते उसकी जमीन- से कोई लेना-देना नहीं रहा। उन्हें मार्क्सवादी विवेचन पर पूरा भरोसा था और है। नारे लगाते रहो लेकिन यह समझ लो कि उनका कोई अर्थ नहीं है। किसानों के खैर- ख्वाह भी बने रहो और अंतिम रात कतल की रात का इंतजार करो। इस बीच ना मरने की किसान की पीड़ा हो रही है, उसमें हमदर्दी का इजहार करते रहो। बस!
 

शुक्रवार, अगस्त 31, 2007

नारोदनिक,मार्क्स,माओ और गाँव-खेती : ले. सुनील

 

पिछले भाग से आगे :

    दरअसल मार्क्सवादी और पूंजीवादी दोनों प्रकार के चिंतन में खेती व गांव एक पुरानी , पिछड़ी और दकियानूसी चीज है ,  एक पुरानी सभ्यता के अवशेष हैं । संयुक्त राज्य अमेरिका , कनाडा और पश्चिमी यूरोप में राष्ट्रीय आय में और कार्यशील आबादी में खेती का हिस्सा दो - तीन प्रतिशत से ज्यादा नहीं रह गया है । वहाँ तेजी से नगरीकरण हो रहा है । यूरोप के कुछ हिस्सों में तो कई गांव उजड़ चुके हैं या वहां कुछ बूढ़ों के अतिरिक्त कोई नहीं रहता है । हमारे अनेक नेताओं और बुद्धिजीवियों की दृष्टि में यही हमारी भी मंजिल है और इस दिशा में बढ़ने को वे स्वाभाविक व वांछनीय मानते हैं ।

    गांवों और खेती से विस्थापन की शुरुआत पश्चिम यूरोप में पूंजीवाद के आगमन के साथ ही हो गई थी । वहां बड़े पैमाने पर किसानों को जमीन से बेदखल किया गया था । इंग्लैंड में खेतों की जगह वस्त्र उद्योग के लिए बड़े पैमाने पर भेड़ पालन के लिए चारागाह बनाए गए थे । इससे , नवोदित बड़े उद्योगों के लिए सस्ते बेरोजगार मजदूरों की विशाल फौज भी उपलब्ध हुई । औद्योगिक क्रांति की प्रक्रिया का यह एक अनिवार्य व महत्वपूर्ण हिस्सा था । मार्क्स ने बताया कि जमीन से बेदखल इन मजदूरों ने " श्रम की सुरक्षित औद्योगिक फौज " को बढ़ाने का काम किया । मार्क्स ने इस प्रक्रिया को " प्राथमिक पूंजी संचय " का नाम दिया। भारत में आज जो कुछ हो रहा है उसकी तुलना इससे की जा सकती है । क्या सिंगूर नन्दीग्राम भी भारत का ' प्राथमिक पूंजी संचय ' है और पूंजीवाद के आगे बढ़ने की निशानी है ?  क्या इसीलिए बंगाल की वामपंथी सरकार इस प्रक्रिया को 'कष्टदायक किन्तु अनिवार्य' मानकर चल रही है ?

    कार्ल मार्क्स की खूबी यह थी कि पूंजीवाद के विकास के पीछे की इन सारी प्रक्रियाओं को उन्होंने उधेड़कर रख दिया था , और उनका निर्मम विश्लेषण किया था।किन्तु उनकी एक कमी यह थी कि पश्चिम यूरोप की इन तत्कालीन प्रक्रियाओं को उन्होंने इतिहास की अनिवार्य गति माना और यह मान लिया कि पूरी दुनिया में देर-सबेर इन्हीं प्रक्रियाओं को दोहराया जाना है।सांमंतवाद से पूंजीवाद में प्रवेश , फिर पूंजीवाद के अन्तर्विरोधों के परिपक्व होते हुए संकट आना और तब श्रमिक क्रांति के साथ समाजवाद का आगमन , यह इतिहास की अनिवार्य गति है । दुनिया के हर हिस्से को इस प्रक्रिया से गुजरना होगा तथा इसी पूंजीवादी औद्योगीकरण को बायपास करके कोई भी देश सीधे समाजवाद की ओर नहीं जा सकता । रूस के नारोदनिकों के साथ कम्युनिस्टों की बहस का प्रमुख मुद्दा यही था । नारोदनिक  सोचते थे कि जार को हटाकर रूस की पारम्परिक गांव आधारित सामुदायिक व्यवस्था से सीधे समाजवाद की ओर जाया जा सकता है । आज माकपा के महासचिव प्रकाश करात कह रहे हैं कि नन्दीग्राम -  सिंगूर मसले पर बंगाल सरकार की आलोचना करने वाले वामपंथी नारोदनिकों की ही तरह बात कर रहे हैं और सच्चे मार्क्सवादी नहीं हैं ।पूंजीवाद का विकास भी पश्चिम यूरोप की तरह होगा जिसमें बड़े - बड़े उद्योग होंगे तथा उनमें हजारों - हजारों की संख्या में मजदूर काम करेंगे । इन्हीं करखनिया मजदूरों के बढ़ते संगठन तथा उनकी बढ़ती वर्ग चेतना की बदौलत साम्यवादी क्रांति होगी और वे ही क्रांति के हरावल दस्ते होंगे ।

    इस सिद्धान्त में मार्क्स के अनुयायियों का विश्वास इतना गहरा था कि दुनिया के गैर-यूरोपीय हिस्सों में भी वे मानते रहे हैं कि पूंजीवाद का आगमन एवं विकास इतिहास का एक अनिवार्य और प्रगतिशील कदम है तथा औद्योगिक मजदूर ही क्रान्ति के अग्रदूत होंगे । भारत सहित तमाम देशों वहां की जमीनी असलियतों को नजरअन्दाज करते हुए , वे संगठित क्षेत्रों के मजदूरों को ही संगठित करने में लगे रहे । जाहिर है कि इस विचार में किसानों का कोई स्थान नहीं था । जमीन से चिपके होने के कारण किसान ' सर्वहारा ' नहीं हो सकते । सोवियत क्रांति में बोल्शेविकों ने किसानों का समर्थन हासिल किया था और बोल्शेविकों की जीत में इस समर्थन की महत्वपूर्ण भूमिका थी । लेकिन बाद में सोवियत रूस में औद्योगीकरण के एक अनिवार्य कदम के रूप में कृषि उपज की कीमतों में कमी की गयी , तब किसानों ने अपना अनाज बेचने से इंकार कर दिया । तब किसानों से जमीन छीनकर जबरदस्ती सामूहिक फार्म बना दिये गये और विरोध करने वाले लाखों किसानों को स्टालिन राज में मौत के घाट उतार दिया गया या दूरदराज के इलाकों में निष्कासित करके निर्माण कार्यों में मजदूरी पर लगा दिया गया । तभी से किसानों को ' कुलक ' कहकर मार्क्सवादी दुनिया में तुच्छ नजरों से देखा जाता है और आम तौर पर , उन्हें क्रांति-विरोधी माना जाता है । भारत में भी कई बार वामपंथियों द्वारा किसान आन्दोलनों को कुलक आंदोलन कह कर तिरस्कृत किया गया है ।

    चीन की परिस्थितियाँ अलग थीं और रूस जितना सीमित औद्योगीकरण भी वहां नहीं हुआ था । इसलिए माओ के नेतृत्व में चीन की साम्यवादी क्रांति पूरी तरह किसान क्रांति थी । इसलिए प्रारंभ में साम्यवादी चीन का रास्ता अलग भी दिखायी देता है । घर के पिछवाड़े इस्पात भट्टी , नंगे पैर डॉक्टरों और साईकिलों का चीन विकास की एक अलग राह पकड़ता मालूम होता है । लेकिन संभवत: पश्चिमी ढंग के औद्योगीकरण की श्रेष्ठता व अनिवार्यता का विश्वास मार्क्सवादी दर्शन में इतना गहरा था कि चीन के साम्यवादी शासकों ने भी यह मान लिया कि ये सब तो संक्रमणकालीन व्यस्थाएं हैं , अंतत: चीन को भी उसी तरह का औद्योगीकरण करना है , जैसा यूरोप-अमरीका में हुआ । इसी विश्वास और विकास की इसी राह की मजबूरियों आखिरकार साम्यवादी चीन को भी पूरी तरह पूंजीवादी पथ का अनुगामी बना दिया । यहाँ नोट करने लायक बात यह है कि सोवियत संघ के पतन के बाद चीन ही भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों का मॉ्डल है । बुद्धदेव भट्टाचार्य और मनमोहन सिंह , दोनों चीन का गुणगान और अनुकरण करते नजर आते हैं । विशेष आर्थिक क्षेत्र की अवधारणा भी चीन से ही आई है ।चीन से जो खबरें आ रही हैं , उनसे मालूम होता है कि वहाँ बड़े पैमाने पर विस्थापन , बेदखली , प्रवास और बेरोजगारी का बोलबाला है । कई नन्दीग्राम वहाँ पर भी हो रहे हैं ।

    तो मार्क्सवाद की धारा में पूंजीवाद और ( पश्चिम यूरोप की तरह के) औद्योगीकरण से कोई छुटकारा नहीं है । समाजवाद के पहले पूंजीवाद को आना ही होगा । मार्क्स ने जिन्हें उत्पादन की शक्तियां कहा है , जिन्हें प्रचलित भाषा तकनालाजी कहा जा सकता है , जब तक उनका विकास नहीं होगा  तब तक समाजवाद के आने के लिए स्थिति परिपक्व नहीं होगी। पूरी दुनिया को इसी रास्ते से गुजरना होगा। आधुनिक औद्योगिक विकास का एक वैकल्पिक रास्ता सोवियत संघ का था , जिसमें पूंजी संचय और बड़े उद्योगों के विकास का काम सरकार करती है । किन्तु सोवियत मॉडल के फेल हो जाने के बाद , अब कोई दूसरा रास्ता नहीं है। इसीलिए बंगाल की वामपंथी सरकार ने टाटा और सालेम समूह को आमंत्रित करके ही बंगाल के औद्योगीकरण की योजना बनाई है । देश के अन्य राज्यों के मुख्यमन्त्रियों की तरह ज्योति बसु और बुद्धदेव भट्टाचार्य भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को आमंत्रित करने के लिए विदेश यात्राएं करते हैं । जिस टाटा - बिड़ला को कोसे बगैर भारतीय साम्यवादियों का कोई कार्यक्रम पूरा नहीं होता था , उसी टाटा से आज उनकी दोस्ती व प्रतिबद्धता इतनी गहरी हो गयी है कि वे अपने किसानों पर लाठी-गोली चला सकते हैं, लेकिन उनका साथ नहीं छोड़ सकते हैं । यह सब वे बंगाल के औद्योगीकरण के लिए कर रहे हैं । जाहिर है कि औद्योगीकरण में यह आस्था अंधविश्वास की हद तक पहुंच गयी है ।

    दरअसल , उदारवादी या नव उदारवादी तथा मार्क्सवादी दोनों विचारधाराओं में पूंजीवाद के विकास के एक महत्वपूर्ण आयाम को नजरअन्दाज करने से यह गड़बड़ी पैदा हुइ है। वह यह है कि पूंजीवाद के विकास में औपनिवेशिक लूट व शोषण

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#BEEFGATEঅন্ধকার বৃত্তান্তঃ হত্যার রাজনীতি

अलविदा पत्रकारिता,अब कोई प्रतिक्रिया नहीं! पलाश विश्वास

ভালোবাসার মুখ,প্রতিবাদের মুখ মন্দাক্রান্তার পাশে আছি,যে মেয়েটি আজও লিখতে পারছেঃ আমাক ধর্ষণ করবে?

Palash Biswas on BAMCEF UNIFICATION!

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS ON NEPALI SENTIMENT, GORKHALAND, KUMAON AND GARHWAL ETC.and BAMCEF UNIFICATION! Published on Mar 19, 2013 The Himalayan Voice Cambridge, Massachusetts United States of America

BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE 7

Published on 10 Mar 2013 ALL INDIA BAMCEF UNIFICATION CONFERENCE HELD AT Dr.B. R. AMBEDKAR BHAVAN,DADAR,MUMBAI ON 2ND AND 3RD MARCH 2013. Mr.PALASH BISWAS (JOURNALIST -KOLKATA) DELIVERING HER SPEECH. http://www.youtube.com/watch?v=oLL-n6MrcoM http://youtu.be/oLL-n6MrcoM

Imminent Massive earthquake in the Himalayas

Palash Biswas on Citizenship Amendment Act

Mr. PALASH BISWAS DELIVERING SPEECH AT BAMCEF PROGRAM AT NAGPUR ON 17 & 18 SEPTEMBER 2003 Sub:- CITIZENSHIP AMENDMENT ACT 2003 http://youtu.be/zGDfsLzxTXo

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Palash Biswas, lashed out those 1% people in the government in New Delhi for failure of delivery and creating hosts of problems everywhere in South Asia. http://youtu.be/lD2_V7CB2Is

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS LASHES OUT KATHMANDU INT'L 'MULVASI' CONFERENCE

अहिले भर्खर कोलकता भारतमा हामीले पलाश विश्वाससंग काठमाडौँमा आज भै रहेको अन्तर्राष्ट्रिय मूलवासी सम्मेलनको बारेमा कुराकानी गर्यौ । उहाले भन्नु भयो सो सम्मेलन 'नेपालको आदिवासी जनजातिहरुको आन्दोलनलाई कम्जोर बनाउने षडयन्त्र हो।' http://youtu.be/j8GXlmSBbbk